शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

मुलाक़ात

ये सोचा न था तुमसे फ़िर कभी मुलाक़ात होगी
बुझी हुई राख में दबी थोडी सी कहीं आग होगी

भीगा है मन, भीगी हैं यादें, भीगी भीगी है तन्हाई
कोहरा है बहुत अभी, आगे कहीं शायद रौशनी होगी

बहुत पुरानी है बात फ़िर कैसे हवाओं में वही खुशबू है
खबर नहीं ये कहानी कब शुरू हुई, कहाँ ख़त्म होगी

यूँ तो देखे हैं मौसम बहुत लेकिन नहीं जानते थे
एक रोज़ बिना बादल ऐसी ज़ोर की बरसात होगी

कभी ख्वाब हो, कभी राज़, कभी धूप तो कभी छाओं तुम
कौन है इस नकाब के पीछे, तुम्हारी कोई तो पहचान होगी

करूँ ऐतबार तुम्हारी आँखों का या ज़ख्मों का अपने
पता नहीं किस के अरमानों की इस बार कुर्बानी होगी

एक तरफ़ पूरी दुनिया और इस तरफ़ एक छोटा सा दिल
न जाने कौन मुस्कुराएगा और किस की रुसवाई होगी

दो अल्फाज़ नहीं जुड़ रहे थे कि एक ग़ज़ल मिल गई "राजीव"
ये मेरी तो हो नहीं सकती, ये ज़रूर तुम्हारी मोहब्बत होग

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