मंगलवार, 26 जनवरी 2010

क्यूँ उठायें उँगलियाँ

क्यूँ उठायें किसी पर उँगलियाँ, हर तरफ़ हैं गुनाहगार यहाँ
अपने अपने ईमान से सभी तो हैं बेईमान यहाँ

कभी होश में, कभी अनजाने में, बस खुदगर्ज़ी का ज़माना है
दामन किसी के मैले नहीं मगर दिल मिलते नहीं साफ़ यहाँ

दौलत का सारा खेल है और नियम सभी पहले से तय हैं
छोटे बनेंगे मुजरिम हमेशा और बड़े चोर कोतवाल यहाँ

इतिहास भी तो गवाह है, ये कौन सी नई बात है यारो
अमीरी तब भी राज करती थी, गरीबी आज भी सज़ा है यहाँ

सांच को आंच नहीं होती, बुजुर्गों से सुना करते थे
सच्चाई महज़ दीवानगी है, झूठ का है बस सहारा यहाँ

मयखाने में वो हमप्याला और तूफानों में टूटी हुई कश्ती
दोस्ती के नए गणित में दुश्मन नहीं ढूँढने पड़ते यहाँ

सभी को ऊपर बढ़ना है और दुनिया को नीचे रखना है
जन्नत में शायद नहीं मिले, हर कदम पर मिलते हैं खुदा यहाँ

ख़ुद से फुर्सत मिले तो कहीं और देखें लोग
दुनिया बड़ी है तो क्या हुआ, दायरे बहुत छोटे हैं यहाँ

गम तो सभी को है लेकिन परवाह किसी को नहीं है "राजीव"
राम राज्य नहीं है तो क्या हुआ, कलयुग की किसे है फ़िक्र यहाँ

मक्तूब

जो लिखा है उसी को लिख दिया है
शुक्र है खुदा का उसने ये हुनर दिया है

वही आशार हैं और हैं दर्द भी वही
बस अंदाज़ ऐ बयान कुछ और है

ख़याल सभी शायर के हैं जुदा
अपना भी तमाशा कुछ और है