शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

खुशियाँ

कहीं ढूँढने से नहीं मिल जाती हैं खुशियाँ
अपने ही आस पास मिल जाती हैं खुशियाँ

गर यकीन न हो तो इसे आज़मा कर देखना
अपनी मुस्कराहट में छुपी मिल जाती हैं खुशियाँ

मुमकिन है गुस्ताखी हमारी हो और सज़ा भी
एक झूठ में मगर कितनी मिल जाती हैं खुशियाँ

क्या ज़रूरी है हर रिश्ता प्यार का आईना बने
दुश्मनों से भी कभी कभी मिल जाती हैं खुशियाँ

ये साया तो नहीं कि सिर्फ़ रौशनी में नज़र आए
ज़िन्दगी की हर धूप छाओं में मिल जाती हैं खुशियाँ

औरों की ख़बर नहीं ये तो अपना हिसाब है
बाँट लेने से और ज़्यादा मिल जाती हैं खुशियाँ

अगर फ़िर भी न मिलें तो अपनी यादों में ढूँढना
आंसुओं में भी कभी कभी मिल जाती हैं खुशियाँ

कहते नहीं किसी से "राजीव", वर्ना हकीकत ये है
ख्वाबों में हमें अक्सर मिल जाती हैं खुशियाँ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें