अगर दशरथ कैकई को न देते एक वचन
न राम को वनवास होता, न सीता का अपरहण
न मिलते हनुमान, न रास्ता भटकता रावण
न मनता दशेहरा, न दीवाली का पर्व पावन
मगर ये तो विधी का विधान था
एक अमावस का उजालों से उद्धार था
वाल्मिकी ने क्या खूब महाकाव्य रचा था
हर होनी को बड़ी बारीकी से गढा था
पर सीता से उनका बैर समझ नहीं आया
अग्नि परीक्षा के बाद भी उसे आज़माया
धोबी के कहने पर घर से निकलवाया
युवराजों का जन्म भी आश्रम में करवाया
वाल्मीकि के इस महाकाव्य में अजीब सा पक्षपात है
सीता ही क्यूँ हर अध्याय में अकेली और लाचार है
उसकी भक्ति का फल क्यूँ त्याग और बलिदान है
क्या यही मर्यादा पुरुषोत्तम का आधार है
वाल्मीकि इस महाकाव्य से अमर हो गए
सीता धरती में, राम जल में विलीन हो गए
बरसों बरस हम यही कहानी दोहराते रहे
अग्नि परीक्षा को नारी का गहना बताते रहे
रामायण को अब सीता की नज़र से लिखना होगा
वाल्मीकि के इस पक्षपात को हमें सुधारना होगा
स्वयम्वर तो फ़िर एक बार सीता का राम से ही होगा
करवा चौथ का व्रत बस अब से राम को रखना होगा
मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010
रविवार, 17 अक्तूबर 2010
रावण
आज शाम फ़िर रावण को जलाया जायेगा
बुराई का प्रतीक फ़िर एक बार मिटाया जायेगा
इतने बड़े विद्वान की कैसे मति भ्रष्ट हो गयी
क्षण भर के घमंड में जान ही चली गयी
सीता को छल से चोरी कर लाया
राह में गरुड़ को भी घायल कर आया
बहिन के प्यार में भगवन को नहीं पहचाना
न ही भाई के विवेक और हनुमान की शक्ति को माना
इतना बड़ा विद्वान ये कैसी भूल कर बैठा
क्रोध में अपनी सूझ बूझ भी खो बैठा
हो न हो ये राम की ही माया थी
हम सब के लिए रची ये गाथा थी
प्यार बना मोह तो अपरहण था बदले की भावना
शक्ति की मदहोशी लायी भगवन से लड़ने की कामना
क्रोध विनाशक हुआ तो बंधू बने दुश्मन
राम के साथ सभी थे, जुड़ गए और विभीषण
युद्ध तो कब का ख़त्म हुआ
और रावण का भी अंत हुआ
हम फ़िर भी हर वर्ष उसे क्यूँ जलाते हैं
अच्छाई की विजय का जश्न क्यूँ मनाते हैं
क्यूंकि कलयुग का आचरण ये कहता है
हम सब में आज भी रावण रहता है
बुद्धिमान हैं मगर भटके हुए हैं
अपने अपने स्वार्थों से लिपटे हुए हैं
एक बार अपने गुनाहों को जला कर देखें
आएने से नज़रें मिला कर तो देखें
सुबह का भूला शाम को घर आ जाए
पश्चाताप से सम्मान और भी बढ़ जाए
रामायण भी तो यही बताती है
दशेहरे के बाद ही दीवाली आती है
रावण ने राम को देर में पहचाना
वक्त है, तुम इतनी दूर मत चले जाना
अपने रावण को आज ज़रूर मारना
वरना इस बार दीवाली मत मनाना
बुराई का प्रतीक फ़िर एक बार मिटाया जायेगा
इतने बड़े विद्वान की कैसे मति भ्रष्ट हो गयी
क्षण भर के घमंड में जान ही चली गयी
सीता को छल से चोरी कर लाया
राह में गरुड़ को भी घायल कर आया
बहिन के प्यार में भगवन को नहीं पहचाना
न ही भाई के विवेक और हनुमान की शक्ति को माना
इतना बड़ा विद्वान ये कैसी भूल कर बैठा
क्रोध में अपनी सूझ बूझ भी खो बैठा
हो न हो ये राम की ही माया थी
हम सब के लिए रची ये गाथा थी
प्यार बना मोह तो अपरहण था बदले की भावना
शक्ति की मदहोशी लायी भगवन से लड़ने की कामना
क्रोध विनाशक हुआ तो बंधू बने दुश्मन
राम के साथ सभी थे, जुड़ गए और विभीषण
युद्ध तो कब का ख़त्म हुआ
और रावण का भी अंत हुआ
हम फ़िर भी हर वर्ष उसे क्यूँ जलाते हैं
अच्छाई की विजय का जश्न क्यूँ मनाते हैं
क्यूंकि कलयुग का आचरण ये कहता है
हम सब में आज भी रावण रहता है
बुद्धिमान हैं मगर भटके हुए हैं
अपने अपने स्वार्थों से लिपटे हुए हैं
एक बार अपने गुनाहों को जला कर देखें
आएने से नज़रें मिला कर तो देखें
सुबह का भूला शाम को घर आ जाए
पश्चाताप से सम्मान और भी बढ़ जाए
रामायण भी तो यही बताती है
दशेहरे के बाद ही दीवाली आती है
रावण ने राम को देर में पहचाना
वक्त है, तुम इतनी दूर मत चले जाना
अपने रावण को आज ज़रूर मारना
वरना इस बार दीवाली मत मनाना
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