रविवार, 1 नवंबर 2009

हे ईश्वर

हे ईश्वर मेरे देश का ये क्या हाल बना दिया
सभ्यता के प्रतीक को कैसा असभ्य बना दिया

ज्ञान की धरती पर मूर्खता विद्धमान है
कलयुग की बेला में दानवीय कोहराम है
भले लोगों के लिए जगह नहीं बाकी
पग पग पर यहाँ दुष्टता विराजमान है
कौन चलेगा सत्य और धर्म के मार्ग पर
बुद्धि के ऊपर बल का हो रहा मान है
खोटे सिक्कों पर आत्मा लुट रही है
जाने क्या बनाया तूने,कहने को इंसान है
सोने की चिड़िया को काला कौआ बना दिया
हे ईश्वर मेरे देश का ये क्या हाल बना दिया
सभ्यता के प्रतीक को कैसा असभ्य बना दिया

प्रगती के नाम पर रोटी को तरस रहे हैं
छोटे छोटे बच्चे माँ बाप का पेट भर रहे हैं
कहते हैं घर जिसको बड़ा बेहूदा मज़ाक है
एक दीवार पर चिपके पन्नी के लिफाफे हैं
सडकों पर बिस्तर है और कूडे में बिखरा खाना
उस पर रात-बे-रात कुछ लोग उन्हें कुचलते हैं
तन तो कब का सूख गया, मन भी है मुरझाया
यमराज के पास वक्त नहीं इसीलिए बस जीते हैं
इन भले लोगों को क्यूँ गाँव से शहर भेज दिया
हे ईश्वर मेरे देश का ये क्या हाल बना दिया
सभ्यता के प्रतीक को कैसा असभ्य बना दिया

रिक्शावाला, टैक्सीवाला, सेठ, बाबू, अफसर
सब एक जैसे हो गए हैं, चडा है भूत सभी पर
ज़ुबान पे चिपके भद्दे अल्फाजों के साथ साथ
मुंह में भरा गुटका थूकें वो सड़क पर
पल भर का भी सब्र नहीं, मैं आगे तुम पीछे
ज़रा सी देर में कूद जाते हैं एक दूसरे पर
छोटे से चौराहे पर चक्रव्यहू बन जाता है
मानो घर नहीं, जाना है किसी युद्ध पर
पैदल चलना ही ठीक था, क्यूँ पहिया बना दिया
हे ईश्वर मेरे देश का ये क्या हाल बना दिया
सभ्यता के प्रतीक को कैसा असभ्य बना दिया

हैवानियत भी कांपी होगी सुन कर ये समाचार
महज़ तीन साल की बच्ची का कर दिया बलात्कार
क्या माया है तेरी क्यूँ चुप चाप बस देखता है
कभी माँ, कभी बहिन, कभी बेटी का अनादर
दे दो एक ऐसा वरदान की दुबारा ये गुनाह न हो
भस्म हो जाए वहीं जो डाले किसी असहाय पर बुरी नज़र
सब्र की हद पार हो गई है, द्रोपदी विवस्त्र हो गयी है
उतर आओ अब धरती पर, मत बरपाओ इतना कहर
किस विधान से इस युग को इतना निर्दयी बना दिया
हे ईश्वर मेरे देश का ये क्या हाल बना दिया
सभ्यता के प्रतीक को कैसा असभ्य बना दिया

क्या चलता होगा इनके दिमाग़ में
खून करते हैं लोग बात बात में
कभी ज़मीन, कभी पैसा, कभी इश्क
मार देते हैं कभी जात के अभिमान में
धर्म की आग काफ़ी नहीं जैसे जलाने को
एक नई भूख लगी है हर गाँव और शहर में
क्यूँ इनको इतनी समझ नहीं दी की देर सबेर
हर अच्छे बुरे का हिसाब होगा इसी जहान में
और बच जायेंगे जो इस ज़मीन के क़ानून से
हिसाब चुकायेंगे ज़रूर वो सच्चे दरबार में
बुद्ध के बगैर आंगुलिमल को क्यूँ जनम दे दिया
हे ईश्वर मेरे देश का ये क्या हाल बना दिया
सभ्यता के प्रतीक को कैसा असभ्य बना दिया

हे ईश्वर मेरे देश का ये क्या हाल बना दिया
सभ्यता के प्रतीक को कैसा असभ्य बना दिया

7 टिप्‍पणियां:

  1. हिंदी ब्लॉग लेखन के लिए स्वागत और शुभकामनायें
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें तथा अपने सुन्दर
    विचारों से उत्साहवर्धन करें

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  2. एक दीवार पर चिपके पन्नी के लिफाफे हैं
    सडकों पर बिस्तर है और कूडे में बिखरा खाना
    उस पर रात-बे-रात कुछ लोग उन्हें कुचलते हैं
    तन तो कब का सूख गया, मन भी है मुरझाया

    देश की हालत का सही चित्रण है आपकी कविता .....!!

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  3. Hausla afzaaee ke liye aap sabhi ka bahut bahut shukriyaa ... na jane kyun laga ki kuch haath badhe aa rahe hain sahara ban ke ... hamkhayal doston ka kafila bada ho gaya ...

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