शनिवार, 17 दिसंबर 2011

मेहमान

मुमकिन नहीं फ़िर क्यूँ हमें ये गुमान हो गया
चुपके इस आज कोई फ़िर दिल का मेहमान हो गया

ये जान तो एक मुद्दत से किसी और की अमानत है
बेखुदी में फ़िर हमसे ये कैसा गुनाह हो गया

अपनी आशिकी का हमसफर हमें हमेशा से अज़ीज़ है
फ़िर क्यूँ लगा जैसे एक हमराह और मिल गया

चंद लम्हों की राह थी कोई ख्वाबों की सहर तो नहीं
लगता है मगर उम्र भर का जैसे कोई रिश्ता हो गया

एक अरसा हुआ था हमें अपने साये से मिले
इस मोड़ पर अचानक फ़िर वो तन्हा मिल गया

खुशियाँ गर न मिलीं तो गम बहुत चले आयेंगे
सर रखने को शायद एक कंधा और मिल गया

मोहब्बत जागीर नहीं किसी की, इंसानी जज्बा है ये
भरी महफिल में क्यूँ हमारा नाम नीलाम हो गया

ज़माना तो ज़माने से दीवाना है इसका क्या ईमान
शिकायत के इसे बस एक बहाना और मिल गया

बहुत छोटी है ज़िन्दगी न जाने कब खुदा बुला ले
हमें याद करने को चलो एक आंसू और मिल गया

अजीब इत्तेफाक है कितनी मिलती है दास्ताँ हमारी
कुछ कहा नहीं किसी ने और कैसा ये इज़हार हो गया

कोई अफ़सोस नहीं उन्हें ये खयाल भी न आयें "राजीव"
खूबसूरत एक ग़ज़ल का हमें आज ख़याल मिल गया

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